Thursday, June 16, 2011

ना तीर न तलवार से मरती है

ना तीर न तलवार से मरती है सचाई
जितना दबाओ उतना उभरती है सचाई

ऊँची उड़ान भर भी ले कुछ देर को फ़रेब
आख़िर में उसके पंख कतरती है सचाई

बनता है लोह जिस तरह फ़ौलाद उस तरह
शोलों के बीच में से गुज़रती है सचाई

सर पर उसे बैठाते हैं जन्नत के फ़रिश्ते
ऊपर से जिसके दिल में उतरती है सचाई

जो धूल में मिल जाय, वज़ाहिर, तो इक रोज़
बाग़े-बहार बन के सँवरती है सचाई

रावण की बुद्धि, बल से न जो काम हो सके
वो राम की मुस्कान से करती है सचाई

Wednesday, June 15, 2011

अम्मा की चिट्ठी

गाँवों की पगडण्डी जैसे
टेढ़े अक्षर डोल रहे हैं
अम्मा की ही है यह चिट्ठी
एक-एक कर बोल रहे हैं

अड़तालीस घंटे से छोटी
अब तो कोई रात नहीं है
पर आगे लिखती है अम्मा
घबराने की बात नहीं है

दीया बत्ती माचिस सब है
बस थोड़ा सा तेल नहीं है
मुखिया जी कहते इस जुग में
दिया जलाना खेल नहीं है

गाँव देश का हाल लिखूँ क्या
ऐसा तो कुछ खास नहीं है
चारों ओर खिली है सरसों
पर जाने क्यों वास नहीं है

केवल धड़कन ही गायब है
बाकी सारा गाँव वही है
नोन तेल सब कुछ महंगा है
इन्सानों का भाव वही है

रिश्तों की गर्माहट गायब
जलता हुआ अलाव वही है
शीतलता ही नहीं मिलेगी
आम नीम की छाँव वही है

टूट गया पुल गंगा जी का
लेकिन अभी बहाव वही है
मल्लाहा तो बदल गया पर
छेदों वाली नाव वही है

बेटा सुना शहर में तेरे
मार-काट का दौर चल रहा
कैसे लिखूँ यहाँ आ जाओ
उसी आग में गाँव जल रहा

कर्फ्यू यहाँ नहीं लगता
पर कर्फ्यू जैसा लग जाता है
रामू का वह जिगरी जुम्मन
मिलने से अब कतराता है

चौराहों पर वहाँ, यहाँ
रिश्तों पर कर्फ्यू लगा हुआ है
इसकी नज़रों से बच जाओ
यही प्रार्थना, यही दुआ है

पूजा-पाठ बंद है सब कुछ
तेरी माला जपती हूँ
तेरे सारे पत्र पुराने
रामायण सा पढ़ती हूँ

तेरे पास चाहती आना
पर न छूटती है यह मिटटी
आगे कुछ भी लिखा न जाए
जल्दी से तुम देना चिट्ठी।